झारखंड की अधूरी लड़ाई: 25 साल बाद भी स्थानीयता नीति का इंतज़ार, माटी की पुकार बेकरार
झारखंड की अधूरी लड़ाई: 25 साल बाद भी स्थानीयता नीति का इंतज़ार, माटी की पुकार बेकरार
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झारखंड राज्य के गठन और उसकी स्थानीयता नीति का मुद्दा झारखंडियों की पहचान, अस्तित्व और अधिकारों से गहराई से जुड़ा हुआ है। यह एक ऐसा मसला है, जो न केवल सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि आर्थिक और राजनीतिक रूप से भी राज्य के भविष्य को प्रभावित करता है। राज्य बने 25 साल हो जाने के बावजूद भी स्थानीय नीति का ना होना झारखंड के युवाओं के लिए अभिशाप बन गया है यहां सरकार नौकरी तो दे रही है लेकिन ज्यादातर नौकरी बाहरी लोग ले जा रहे हैं। हेमंत सोरेन की सरकार ने 1932 आधारित स्थानीय नीति बनाए और उसे राज्यपाल के पास अनुमोदन के लिए भेजा राज्यपाल ने केंद्र के पाले में गेंद फेंक दिया। इसके बाद से यह जनभावना वाली स्थानीय नीति अभी तक अधूरी लटकी पड़ी है ।आइए समझते हैं पूरी स्थानीय नीति के 25 साल के खेल को
झारखंड आंदोलन और स्थानीयता नीति का उद्भव
झारखंड राज्य का गठन 15 नवंबर 2000 को लंबे आंदोलन और बलिदानों के बाद हुआ। इस आंदोलन का आधार था आदिवासी और मूलवासी समुदायों की भाषा, संस्कृति, पहचान और शोषण के खिलाफ आवाज। झारखंडी समुदायों ने अपनी जमीन, जल, जंगल और संसाधनों पर अधिकार के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर रोजगार और अवसरों की मांग की थी। राज्य गठन के बाद यह अपेक्षा थी कि स्थानीय लोगों को प्राथमिकता दी जाएगी, विशेषकर सरकारी नौकरियों और विकास परियोजनाओं में।
8 अगस्त 2002 को तत्कालीन झारखंड सरकार ने एक स्थानीयता नीति बनाई, जिसमें कहा गया कि स्थानीय व्यक्ति वही माना जाएगा, जिसका या जिसके पूर्वज का नाम जमीन के सर्वे रिकॉर्ड (खातियान) में दर्ज होगा। यह नीति झारखंडी पहचान को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम थी। हालांकि, 27 नवंबर 2002 को झारखंड हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका पर इस नीति को निरस्त कर दिया। इसके बाद तत्कालीन सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की बात तो कही, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। इस निष्क्रियता ने कई सवाल खड़े किए और स्थानीयता नीति का मसला ठंडे बस्ते में चला गया।
स्थानीयता नीति की अनुपस्थिति और परिणाम
2002 के बाद, बिना किसी स्पष्ट स्थानीयता नीति के सरकारी नियुक्तियां होती रहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि अन्य राज्यों के लोग भी झारखंड में नौकरियों में नियुक्त होने लगे, जिससे स्थानीय युवाओं में असंतोष बढ़ा। यह स्थिति झारखंडी आंदोलन की मूल भावना के खिलाफ थी, क्योंकि स्थानीय लोग अपने ही राज्य में अवसरों से वंचित होने लगे।
विभिन्न सरकारों के प्रयास और विफलताएं
2010: अर्जुन मुंडा सरकार
अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में बनी सरकार ने स्थानीयता नीति तय करने के लिए एक मंत्रिमंडलीय उपसमिति गठित की। इस समिति के संयोजक तत्कालीन उपमुख्यमंत्री सुदेश कुमार महतो थे, और हेमंत सोरेन व बैधनाथ राम इसके सदस्य थे। हालांकि, यह समिति कोई ठोस निर्णय नहीं ले सकी, जिससे स्थानीयता का मसला अनसुलझा रहा।
2013: हेमंत सोरेन सरकार
हेमंत सोरेन के नेतृत्व में 2013 में बनी सरकार ने भी एक मंत्रिमंडलीय उपसमिति बनाई, जिसके संयोजक स्वर्गीय राजेंद्र प्रसाद सिंह थे। इस समिति में सुरेश पासवान, बंधु तिर्की, विद्युत वरण महतो, लॉबिन हेम्ब्रॉम और सरफराज अहमद जैसे विधायक शामिल थे। लेकिन इस समिति ने भी कोई अनुशंसा नहीं दी, जिससे स्थानीयता नीति का निर्धारण फिर टल गया।
इन दोनों समितियों की विफलता ने सरकारों की नीयत और प्रतिबद्धता पर सवाल उठाए। स्थानीय लोगों में यह धारणा बनी कि सरकारें इस मुद्दे को जानबूझकर लटकाना चाहती हैं।
2016: रघुवर दास सरकार, 1985 का फ्लॉप शो
2016 में रघुवर दास की सरकार ने 1985 को कट-ऑफ वर्ष मानकर एक स्थानीयता नीति थोप दी। ये नीति थी एकदम हरी मिर्च की तरह—दिखने में तो हल्की, लेकिन गले में अटक गई। 1985 का कट-ऑफ? इससे तो आधे झारखंडी ही बाहर हो गए! जनता ने इसे झारखंडी भावनाओं पर थप्पड़ माना। सोशल मीडिया पर मीम्स बने, सड़कों पर हंगामा हुआ, लेकिन रघुवर बाबू अड़े रहे। ये नीति थी एकदम बासी खाने जैसी—न खाने लायक, न फेंकने लायक।
2019: हेमंत सोरेन सरकार
2019 में हेमंत सोरेन के नेतृत्व में बनी सरकार ने 2022 में विधानसभा में सर्वसम्मति से 1932 खातियान आधारित स्थानीयता नीति पारित की। इस नीति के तहत, 1932 के सर्वे रिकॉर्ड में दर्ज व्यक्तियों या उनके वंशजों को स्थानीय माना जाएगा। यह नीति झारखंडी आंदोलन की मूल भावना के अनुरूप थी और स्थानीय लोगों की लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा करने की दिशा में एक बड़ा कदम था। हालांकि, 20 दिसंबर 2023 को विधानसभा से पारित होने के बावजूद यह नीति आज तक लागू नहीं हो सकी।
वर्तमान स्थिति और चुनौतियां
1932 खातियान आधारित स्थानीयता नीति के लागू न होने के कारण झारखंड में अन्य राज्यों के युवाओं की नियुक्तियां जारी हैं, जबकि स्थानीय युवा अपने अधिकारों से वंचित हो रहे हैं। इस नीति को लागू करने में कई कानूनी और प्रशासनिक बाधाएं सामने आ रही हैं। कुछ लोग इसे संवैधानिक दृष्टिकोण से चुनौती देने की बात कह रहे हैं, क्योंकि यह नीति कुछ समूहों को स्थानीयता के दायरे से बाहर कर सकती है। इसके अलावा, नीति को लागू करने के लिए केंद्र सरकार की मंजूरी और संभवतः संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल करने की आवश्यकता हो सकती है, ताकि इसे कानूनी चुनौतियों से बचाया जा सके।
अगर सरकार चाहे तो इस मुद्दे को हल करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:
केंद्र सरकार से संवाद: झारखंड के सभी विधायकों और सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नेतृत्व में, प्रधानमंत्री से मिलकर 1932 खातियान आधारित स्थानीयता नीति को लागू करने की मांग रख सकता है। इसे नौवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग इस नीति को कानूनी सुरक्षा प्रदान कर सकती है।
कानूनी मजबूती: नीति को लागू करने से पहले इसके सभी कानूनी पहलुओं को स्पष्ट करना होगा ताकि भविष्य में इसे अदालत में चुनौती न दी जा सके। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के विशेषज्ञों की सलाह ली जा सकती है।
जागरूकता और एकजुटता: झारखंडी समाज को इस मुद्दे पर एकजुट होकर अपनी आवाज बुलंद करनी होगी। सामाजिक संगठनों, आदिवासी समुदायों और युवाओं को इस नीति के पक्ष में सक्रिय भूमिका निभानी होगी।
जाहिर है झारखंडियों की पहचान, अस्तित्व और अधिकारों से जुड़ा यह मसला पिछले 25 वर्षों से अनसुलझा है। 1932 खातियान आधारित स्थानीयता नीति इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, लेकिन इसे लागू करने में देरी और अनिर्णय ने झारखंडी युवाओं के बीच निराशा पैदा की है। यह समय है कि राज्य और केंद्र सरकार इस मुद्दे को प्राथमिकता दे और झारखंडी आंदोलन की मूल भावना को साकार करे। यदि इस नीति को जल्द लागू नहीं किया गया, तो यह न केवल स्थानीय लोगों के विश्वास को तोड़ेगा, बल्कि राज्य में सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता को भी बढ़ा सकता है।





