गुरुजी के बाद झारखंड ने राम को भी खो दिया : रामदास एक समर्पित नेता , मृदुल वाणी और झारखंड के आदिवासी समाज के सर पर छांव की तरह थे।
गुरुजी के बाद झारखंड ने राम को भी खो दिया : रामदास एक समर्पित नेता , मृदुल वाणी और झारखंड के आदिवासी समाज के सर पर छांव की तरह थे।
Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!झारखंड के वरिष्ठ नेता और शिक्षा मंत्री रामदास सोरेन का शुक्रवार को दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल, सरिता विहार (जसोला) में निधन हो गया। 62 वर्षीय रामदास सोरेन के निधन की खबर ने पूरे झारखंड में शोक की लहर दौड़ा दी। उन्होंने अपने चार दशकों से अधिक के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में आदिवासी समाज के उत्थान और सामाजिक न्याय के लिए अथक प्रयास किए। उनकी मृत्यु न केवल झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) बल्कि पूरे राज्य के लिए एक अपूरणीय क्षति है।
ग्रामीण पृष्ठभूमि से सशक्त नेतृत्व तक
रामदास सोरेन का जन्म 1 जनवरी 1963 को झारखंड के एक मध्यमवर्गीय संथाल आदिवासी परिवार में हुआ था। उनके दादा टेल्को में कार्यरत थे और घोड़ाबांधा में बस गए थे। बचपन से ही रामदास ने गांव की जमीनी सच्चाइयों को करीब से देखा और अनुभव किया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के सरकारी स्कूल में हुई, जिसके बाद उन्होंने स्नातक तक की पढ़ाई पूरी की। छात्र जीवन से ही सामाजिक मुद्दों में उनकी गहरी रुचि थी, जिसने उन्हें सामाजिक कार्यों और राजनीति की ओर प्रेरित किया।
पिता के निधन के बाद रामदास को घोड़ाबांधा का ग्राम प्रधान चुना गया, जिसने उनके नेतृत्व की नींव रखी। इस भूमिका ने उन्हें समाज की सेवा करने और स्थानीय समस्याओं को समझने का अवसर प्रदान किया।
44 वर्षों का प्रेरणादायक राजनीतिक सफर
रामदास सोरेन ने 1980 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की सदस्यता ग्रहण करके अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। उसी वर्ष उन्हें घोड़ाबांधा का पंचायत सचिव नियुक्त किया गया। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी मेहनत और समर्पण से पार्टी में महत्वपूर्ण स्थान बनाया। वे जमशेदपुर प्रखंड कमेटी के प्रथम सचिव, अनुमंडल कमेटी के प्रथम सचिव और अविभाजित जिले में जिला सचिव जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहे।
झारखंड आंदोलन में सक्रिय भूमिका:
रामदास सोरेन ने झारखंड आंदोलन में शिबू सोरेन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया। इस आंदोलन के दौरान उनकी सक्रिय भागीदारी ने उन्हें आदिवासी समाज में एक मजबूत पहचान दिलाई। इस दौरान उन पर कई मुकदमे भी दर्ज हुए, लेकिन उन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया।
चुनावी संघर्ष और सफलता:
– 2004: रामदास ने घाटशिला विधानसभा सीट से पहला चुनाव निर्दलीय लड़ा, लेकिन पार्टी से टिकट न मिलने के कारण वे हार गए।
– 2009: झामुमो ने उन्हें टिकट दिया और वे घाटशिला से विधायक चुने गए।
– 2014 : वे भाजपा के लक्ष्मण टुडू से हार गए।
– 2019 और 2024: झामुमो के टिकट पर उन्होंने घाटशिला से दोबारा जीत हासिल की और झारखंड विधानसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज की।
इन उतार-चढ़ाव भरे सफर में रामदास ने कभी हार नहीं मानी और अपने समर्पण और कठिन परिश्रम से एक मजबूत नेता के रूप में उभरे।
सामाजिक न्याय और आदिवासी समाज के प्रति समर्पण
रामदास सोरेन आदिवासी समाज के लिए एक प्रखर आवाज थे। सामाजिक न्याय और समानता के मुद्दों पर वे हमेशा मुखर रहे। उनकी राजनीति का आधार सामाजिक उत्थान और आदिवासी समुदाय के हितों की रक्षा रहा। सामाजिक कार्यों में उनकी सक्रियता ने उन्हें जनता के बीच लोकप्रिय बनाया।
चंपाई सोरेन के साथ संबंध
रामदास और चंपाई सोरेन के बीच गहरा रिश्ता था। जब चंपाई सोरेन ने भाजपा जॉइन की थी, तब रामदास ने कहा था कि चंपाई बड़े नेता हैं और रहेंगे, लेकिन पार्टी सबसे ऊपर है। यह उनकी पार्टी के प्रति निष्ठा और सिद्धांतों को दर्शाता है।
शिक्षा मंत्री के रूप में योगदान
हाल ही में रामदास सोरेन को झारखंड सरकार में शिक्षा मंत्री बनाया गया था। इस भूमिका में उन्होंने शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए कई कदम उठाए। खास तौर पर, उन्होंने आदिवासी बच्चों की शिक्षा को प्राथमिकता दी और इसके लिए कई योजनाएं शुरू कीं। उनका मानना था कि शिक्षा के माध्यम से समाज में सकारात्मक बदलाव लाया जा सकता है।
एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व
रामदास सोरेन का जीवन संघर्ष, समर्पण और सिद्धांतों की कहानी है। एक साधारण ग्रामीण पृष्ठभूमि से शुरूआत करके उन्होंने झारखंड की राजनीति में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। वे न केवल एक राजनेता थे, बल्कि एक सामाजिक कार्यकर्ता और आदिवासी समाज के सच्चे हितैषी थे।
जाहिर है उनके निधन से झारखंड ने एक समर्पित नेता खो दिया है, लेकिन उनकी विरासत और उनके द्वारा किए गए कार्य हमेशा प्रेरणा देते रहेंगे। रामदास सोरेन का जीवन आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मिसाल है कि कठिन परिस्थितियों में भी सच्चाई और समर्पण के साथ समाज की सेवा की जा सकती है।






