झारखण्ड में पारम्पारिक बांस शिल्पकला पतन के कगार पर
दिलेश्वर लोहरा
मूर्तिकार, रांची, झारखंड,
झारखण्ड की हस्त शिल्पकला बहुत समृद्धशाली है, विशेषकर बांस शिल्प के पारम्पारिक डिजाईन झारखण्ड में यदा कदा कहीं दिख जाया करता है. अविभाजित बिहार के समय झारखण्ड में हस्त शिल्पकारों ने शिल्प कला में काफी विकास किया था. इसकी वजह है, अविभाजित बिहार में दो कला शिक्षण संस्थान का होना. कला एवं शिल्प महाविद्यालय पटना और बिहार सरकार के हस्तशिल्प अनुसंधान संस्थान के समय निरंतर विकास करता रहा.
वर्तमान में हस्तशिल्प अनुसंधान संस्थान का नाम बदल कर उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान कर दिया गया. भारत के प्रसिद्घ चित्रकार पद्मश्री उपेन्द्र महारथी 1902 में ओडिसा के पुरी जिला में जन्म हुआ और कोलकाता स्कूल ऑफ आर्टस से फाइन आर्ट में डिपलोमा किये और बिहार को कर्मभूमि बनाई. उपेन्द्र महारथी बिहार सरकार के हस्तशिल्प अनुसंधान संस्थान में निदेशक के पद पर कार्यरत थे.1957 में बांस शिल्पकला की शिक्षा प्राप्त करने के लिए जापान की यात्रा की थी. जापान के विभिन्न कला संस्थानों में घूम-घूमकर दो साल तक शिक्षा प्राप्त कर पटना लौट आये. उन्होंने बांस शिल्प पर सैद्धान्तिक एवं प्रयोगात्मक विषय पर ”वेणु शिल्प” नामक पुस्तक लिखा, यह पुस्तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के द्वारा 1961 में प्रकाशित किया गया था यह बांस शिल्पकारी पेशा से जुडे़ हुए कलाकार और शिल्पकारों के बहुत उपयोगी पुस्तक है, विशेषकर पारम्पारिक बांस शिल्पकला के उत्पाद आदिवासी एवं अन्य जाति जो बांस शिल्पकारी पेशा सेे जुडे़ हुए हैं उनके लिए गौरव की बात है.
बास शिल्पकारों की उर्वरा भुमि बांसों का जंगल झारखण्ड के छोटानागपुर एवं संथाल परगना बांस के लिए प्रसिद्ध है. शिल्पकार उपेन्द्र महारथी ने अविभाजित बिहार के आदिवासी बांस शिल्पकारों के लिए पारम्पारिक बांस शिल्प के साथ प्रयोग करके बांस शिल्पकला को नए रूपों में विकसित कर शिल्पी समाज के लिए एक पहचान दिए. अविभाजित बिहार को मान सम्मान बढ़ाया. पारम्पारिक बांस शिल्प और आधुनिक बांस शिल्प के विकास का श्रेय भारत के प्रसिद्ध चित्रकार पद्मश्री उपेन्द्र महारथी को जाता है.
15 नवम्बर 2000 को झारखण्ड अलग राज्य बना. अलग राज्य से उम्मीद यही थी कि बांस हस्तशिल्प का विकास होगा और कम खर्च में आजीविका का साधन बन सकता है. अविभाजित बिहार के समय बांस हस्तशिल्प झारखण्ड में केन्द्र होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र में हस्तशिल्प का विकास हुआ और ग्रामीण आदिवासी बांस हस्तशिल्पकार को रोजगार मिला. आज गैर सरकारी संस्थाओं और इस पेशा में हो, संथाल, महली और तुरी परिवार के लोग जुडे़ हुए हैं.
झारखण्ड राज्य में लगभग 8000 बांस हस्तशिल्पकार ज्यादातर रांची, गुमला, लोहरदगा, सिमडेगा, चाईबासा, जमशेदपुर, हजारीबाग और दुमका जो आदिवासी बहुल क्षेत्र हैं जहां पारम्पारिक बांस शिल्पकला के उत्पाद के रूप में धानटोकरी, पिजड़ा, छाता, कुभनी, कंधी, बांसुरी और खिलौना इत्यादि बनाते हैं. कलात्मक पूर्ण उत्पाद का झारखण्ड राज्य में पुराने पारम्पारिक बांस शिल्पकला का संग्राहालय नही है. आधुनिक बांस शिल्प पूर्णरूप से कलात्मक न हो कर काम चलाने लायक होता है. बाजार में लेटर बाक्स, टेबुल लेम्प, फूलदान, आइने के चैखट, सौफा सैट और टेबूल नये डिजाईन के माध्यम से उपभोक्तावादी संस्कृति ने पारम्पारिक बांस शिल्पकला को काफी नुकसान किया है. पुराने डिजाईन संग्रह में नही रहने के कारण शिल्पकार भूल चुके हैं.
बांस शिल्प की मांग शादी और पर्व त्योहारों तक सीमित रह गया सूप, दउरा, पंखा और कंधी बांस शिल्प की मांग शादी और पर्व त्योहारों तक सीमित रह गया. शादी के समय दूल्हा को दउरा में बैठाकर सगे बहन और चाची सब शादी की गीत गाकर नृत्य करती है. दूल्हन को परीक्षने के समय भी दउरा का प्रयोग होता है. छठ के पर्व में सूप, दउरा, का लाखों का कारोबार होता है. कोरोना काल में शादी और पर्व त्योहारों बंद रहने से बांस शिल्प का बुरा हाल है.