झारखंडी पारंपरिक खेल मुर्गा लड़ाई.
दिलेश्वर लोहरा, मूर्तिकार.
रांची, झारखण्ड.
झारखंड की खूबसूरत वादियों में आदिवासी संस्कृति से जुड़ा हुआ साझा संस्कृति है. राज्य में आदिवासी बहुल क्षेत्र होने के कारण यहां के वातावरण में अपनी पारम्परिक गीत संगीत के साथ रीझ-रंग करना सांस्कृतिक पहचान है. उरांव, मुंडा, हो, संथाल और खड़िया अपने परम्परा को आज भी जीवित रखे हुए हैं.
ऐसा ही एक परंपरा है मुर्गा लड़ाई. खेती बारी का दिन समाप्त होने के साथ ही अक्टूबर से जनवरी का महीना में कोई काम धंधा गांव में रहता नहीं है. ऐसे समय में आदिवासी समुदाय के लोग फुर्सत के क्षण ग्रामीण बाजार हॉट में पारंपरिक खेल मुर्गा लड़ाई का मजा लेते हैं और जीते हुए मुर्गा का आनंद लेते हैं. झारखंड के जिला रांची, लोहरदगा, गुमला, सिमडेगा, हजारीबाग और रामगढ़ क्षेत्र में प्रसिद्ध है.
मुर्गा लड़ाई पारम्पारिक मनोरंजन का खेल के रूप में प्रसिद्ध था. झारखण्ड के ग्रामीण क्षेत्र में बाजार हॉट में देखने के लिए मिल जाया करता था. लेकिन इस पारम्पारिक मुर्गा लड़ाई के खेल में पैसा कमाने का धंधा बन जाने के कारण प्रशासन को बंद करवाना पड़ा. रंगवा, चरका, काला रंग का मुर्गा के लड़ाई में स्थानीय ग्रामीण लोगों का जिज्ञासा को देखने के बाद खुद को अनुभव करेंगे कि युद्ध के मैदान में लड़ाई मुर्गा नही बल्कि आप खुद अपना प्रतिरूप में लड़ते पायेंगे. आदिवासी परंपरा के अनुसार यह चकित कर देने वाली कहानी यह है कि अपने परंपरा और संस्कृति से बहुत अधिक प्यार है इसी स्वतंत्र विचार ने अपने अस्तित्व को कायम रखा है.
ब्रिटिश समय की एक कहानी है 150 साल पहले रांची झारखंड में मुर्गा लड़ाई का खेल बहुत प्रचलित था. 1850 में रांची चुटिया में वार्षिक मेले के आयोजन किया गया था. ब्रिटिश अधिकारी और ग्रामीण क्षेत्र के लोग शामिल थे. उस वार्षिक के समारोह में हो जनजाति के लोग अपने साथ मुर्गा लाए थे और उस मुर्गे के पैर में काइथ (छोटा चाकू) 2 इंच का होता है. उस चाकू का डिजाइन लोहरा आदिवासी के द्वारा ही बनाया जाता था. मुर्गा के पैर में बांधकर दोनों मुर्गा के लड़वाया जाता था और उस लड़ाई में जो जीत जाता, शर्त के अनुसार जीतने वाला व्यक्ति दोनों मुर्गा को अपने पास रख लेता था.
इस प्रकार कई ऐसे आदिवासी परंपरा है जो आज भी हमारे यहां झारखंड में देखनें को मिलता है. जरूरत है समय के साथ खत्म होती इस झारखंडी परंपरा को जिंदा रखने की.